निशा विदा हुई, जब उषा ने आँखें खोलीं,
प्रभात मंद-मंद मुस्काया, किरणों ने बाहें खोलीं।
धन्य हुआ मैं पावन भूमि का पावन स्पर्श पाकर,
स्वागत किया मेहेराबाद ने बाहें फैलाकर।
मंत्रमुग्ध सा देख रहा था मै वो अद्भुत दृश्य,
कहीं कोई भेद नहीं, शाह हो या अस्पृश्य|
चिर आनंद की अनुभूति थी बड़ी मधुकर,
मन हर्षित हुआ, सद्जनो से मिलकर|
शिखर पर समाधि का वो दृश्य बड़ा था अनुपम,
प्रतीत होता था यूँ, मानो थम
अद्भुत था वो क्षण, जब देखी समाधि “इश्वर” की,
उत्कट इच्छा पूर्ण हुई, मानो इस नश्वर जीवन की|
अवतार के अवसान की थी वो अमरतिथि,
मेहेराबाद अमर हो
मौनावतार ने किया, यहाँ अन्तिम सहवास,
धन्य है वो भूमि जहाँ बाबा ने किया निवास|
दिनांक इकत्तीस औ वर्ष उनहत्तर,
बाबा ने किया विश्राम,
सच्चिदानंद की त्रिमूर्ति ने त्यागे अपने प्राण|
बाबा का संदेश न भूलो, करना उनसे प्रेम,
उनका दामन कभी न छूटे, प्रार्थना यही दिन-रैन|
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